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माँ

जब आंख खुली तो माँ की गोदी का एक सहारा था, उसका नन्‍हा सा आंचल मुझको भूमण्‍डल से प्‍यारा था । उसके चेहरे की झलक देख चेहरा फूलों सा खिलता था, हाथों से बालों को नोंचा पैरों से खूब प्रहार किया, फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमको जी भर के प्‍यार किया।  मैं उसका राजा बेटा था वो आंख का तारा कहती थी, उंगली को पकड. चलाया था पढने विद्यालय भेजा था।  मेरी नादानी को भी निज अन्‍तर में सदा सहेजा था ।    मेरे सारे प्रश्‍नों का वो फौरन जवाब बन जाती थी,  मेरी राहों के कांटे चुन वो खुद गुलाब बन जाती थी।  मैं बडा हुआ तो कॉलेज से इक रोग, प्‍यार का ले आया,  जिस दिल में माँ की मूरत थी वो एक रामकली को दे आया।  शादी की, पति से बाप बना अपने रिश्‍तों में झूल गया,  अब करवाचौथ मनाता हूं माँ की ममता को भूल गया।    हम भूल गये उसकी ममता जो, मेरे जीवन की थाती थी, हम भूल गये अपना जीवन वो अमृत वाली माती थी।  हम भूल गये वो खुद भूखी रह करके हमें खिलाती थी, हमको सूखा बिस्‍तर देकर खुद गीले ...

जीवन

मौत से पहले,मरना मत, परिणाम से पहले, डरना मत ! रगों में तेरे, खून है, आलस से, पानी,करना मत !! उम्मीद, जीत की रखना तू, स्वाद कर्म का, चखना तू! तू सोना है, कुछ कम तो नहीं, एकबार, कसौटी पर रखना तू !! तुझमे सारे है, भेद छुपे, तेरा कोई भी, पार नहीं ! दिल में, तूने जो ठान लिया, कभी जाता वो बेकार नहीं !! सब दौलत, तेरे दिल में है, फिर भी तू, मुश्किल में है ! तू ढूंढ़, खज़ाना अंदर का, फिर राजा, तू हर महफ़िल में है !! तू जोश जगा और डर को भगा, सारी बाधाये, छुप जायेंगी ! है कीमत, तेरी हिम्मत की, राहें फिर, शीश झुकायेगी !! पत्ता भी, दामन छोड़े ना, चाहे कितने, तूफ़ान चले ! सूख गये, जो ड़ाल पर, वो खा, पी कर भी नहीं पले !! भाग्यशाली हो, तुम कितने, तनिक इसका तुम, विश्वास करो ! सभी बातें, तुम में भी है, कभी खुद में, तुम तलाश करो !! है ज्ञान का, भण्डार तू, और मेहनत का, पहाड़ तू ! बकरी नहीं, तू शेर है, कभी खुल के, तो दहाड़ तू !! कहते है, जबतक सांस है, तबतक, पूरी आस है ! फिर निकल पड़ो, उस राह पर, जिस मंज़िल की, ...

सैनिक

जब तुलसी पर नागफनी की, पहरेदारी भाती है तब धरती भी गद्दारो के, रक्त की प्यासी हो जाती है। जब कुरुक्षेत्र में अर्जुन भी , कायरता दिखलाता है गदा युद्ध के नियम में , जब भीम भी चोटे खाता है। जब समाज में वस्त्र हरण को, पुरुषोत्सव समझा जाता है जब भी राजा, पुत्रमोह में, धृतराष्ट् बन जाता है। कोई भीष्म और द्रोण भी , सत्ता से बन्ध जाते हो कर्ण जैसे महावीर भी जब , जब सत्ता को समझ न पाते हो। और विदुर का निति ज्ञान जब , अंतिम साँसे गिनता हो तब पुनः भूत में जा गीता का,  पाठ पढ़ाना पड़ता है। पाञ्चजन्य के शंखनाद से , अलख जगाना पड़ता है देश धर्म की रक्षा के हेतू से,  शस्त्र उठाना पड़ता है। कृष्ण खड़े हो दूर तो भी, अभिमन्यु बन जाना पड़ता है चक्रव्यूह को भेदने को , पौरुष दिखलाना पड़ता है। संकट की घड़ियों में बस, सैनिक बन जाना पड़ता है। सैनिक बन जाना पड़ता है सैनिक बन जाना पड़ता है |

साहित्य मनीषी या खलनायक

हैं साहित्य मनीषी या फिर अपने हित के आदी हैं, राजघरानो के चमचे हैं, वैचारिक उन्मादी हैं, दिल्ली दानव सी लगती है, जन्नत लगे कराची है, जिनकी कलम तवायफ़ बनकर दरबारों में नाची है, डेढ़ साल में जिनको लगने लगा देश दंगाई है, पहली बार देश के अंदर नफरत दी दिखलायी है, पहली बार दिखी हैं लाशें पहली बार बवाल हुए. पहली बार मरा है मोमिन पहली बार सवाल हुए. नेहरू से नरसिम्हा तक भारत में शांति अनूठी थी, पहली बार खुली हैं आँखे, अब तक शायद फूटी थीं, एक नयनतारा है जिसके नैना आज उदास हुए, जिसके मामा लाल जवाहर ,जिसके रुतबे ख़ास हुए, पच्चासी में पुरस्कार मिलते ही अम्बर झूल गयी, रकम दबा सरकारी, चौरासी के दंगे भूल गयी भुल्लर बड़े भुलक्कड़ निकले, व्यस्त रहे रंगरलियों में, मरते पंडित नज़र न आये काश्मीर की गलियों में, अब अशोक जी शोक करे हैं, बिसहाडा के पंगो पर, आँखे इनकी नही खुली थी भागलपुर के दंगो पर, आज दादरी की घटना पर सब के सब ही रोये हैं, जली गोधरा ट्रेन मगर तब चादर ताने सोये हैं, छाती सारे पीट रहे हैं अखलाकों की चोटों पर, कायर बनकर मौन रहे जो दाऊद के विस्फोटों पर, ना तो कवि, ना कथ...

जो हवाओं में है

जो हवाओं में है, लहरों में है वह बात    क्यों नहीं मुझमें है?     शाम कंधों पर लिए अपने ज़िन्दगी के रू-ब-रू चलना रोशनी का हमसफ़र होना उम्र की कन्दील का जलना आग जो     जलते सफ़र में है वह बात    क्यों नहीं मुझमें है?     रोज़ सूरज की तरह उगना शिखर पर चढ़ना, उतर जाना घाटियों में रंग भर जाना फिर सुरंगों से गुज़र जाना जो हंसी     कच्ची उमर में है वह बात    क्यों नहीं मुझमें है?     एक नन्हीं जान चिड़िया का डाल से उड़कर हवा होना सात रंगों के लिये दुनिया वापसी में नींद भर सोना जो खुला     आकाश स्वर में है वह बात    क्यों नहीं मुझमें है?

Oldest, Biggest and Greatest Secret Society of the WORLD...!!!

The Nine Unknown Men According to occult lore , the Nine Unknown Men are a two millennia-old secret society founded by the Indian Emperor Asoka 273 BC. The legend of The Nine Unknown Men goes back to the time of the Emperor Asoka, who was the grandson of Chandragupta. Ambitious like his ancestor whose achievements he was anxious to complete, he conquered the region of Kalinga which lay between what is now Calcutta and Madras. The Kalingans resisted and lost 100,000 men in the battle. At the sight of this massacre Asoka was overcome and resolved to follow the path of non-violence. He converted to Buddhism after the massacre, the Emperor founded the society of the Nine to preserve and develop knowledge that would be dangerous to humanity if it fell into the wrong hands. It is said that the Emperor Asoka once aware of the horrors of war, wished to forbid men ever to put their intelligence to evil uses. During his reign natural science, past and present, was vowed to secrecy. Henceforw...

आज़ादी

बेबस हूँ बिखरी हूँ उलझी हूँ सत्ता के जालो में, एक दिवस को छोड़ बरस भर बंद रही हूँ तालों में, बस केवल पंद्रह अगस्त को मुस्काने की आदी हूँ, लालकिले से चीख रही मैं भारत की आज़ादी हूँ, जन्म हुआ सन सैतालिस में,बचपन मेरा बाँट दिया, मेरे ही अपनों ने मेरा दायाँ बाजू काट दिया, जब मेरे पोषण के दिन थे तब मुझको कंगाल किया मस्तक पर तलवार चला दी,और अलग बंगाल किया मुझको जीवनदान दिया था लाल बहादुर नाहर ने, वर्ना मुझको मार दिया था जिन्ना और जवाहर ने, मैंने अपना यौवन काटा था काँटों की सेजों पर, और बहुत नीलाम हुयी हूँ ताशकंद की मेजों पर, नरम सुपाड़ी बनी रही मैं,कटती रही सरौतों से, मेरी अस्मत बहुत लुटी है उन शिमला समझौतों से, मुझको सौ सौ बार डसा है,कायर दहशतगर्दी ने, सदा झुकायीं मेरी नज़रे,दिल्ली की नामर्दी ने, मेरा नाता टूट चूका है,पायल कंगन रोली से, छलनी पड़ा हुआ है सीना नक्सलियों की गोली से, तीन रंग की मेरी चूनर रोज़ जलायी जाती है, मुझको नंगा करके मुझमे आग लगाई जाती है मेरी चमड़ी तक बेची है मेरे राजदुलारों ने, मुझको ही अँधा कर डाला मेरे श्रवण कुमारों ने उजड़ चुकी हूँ बिना रंग के फगवा जैसी दिखती हूँ...